कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
धूप-बत्ती : बुझी, जली !
अपनी कोठरी में आते ही देखा कि कल सुबह जो धूप-बत्ती जलायी थी, वह पूरी तरह जली नहीं थी, कुछ जलकर बुझ गयी थी और अब भी ज्यों की त्यों खड़ी है। मुझे वह सिर-जली ऐसी लगी कि जैसे कोई मनुष्य हो, थोड़े-बहुत ज्ञान से जिसका बौद्धिक जागरण तो हो गया हो, पर मानसिक विकास न हुआ हो और वह उस बौद्धिक जागरण को अपना सम्पूर्ण विकास मानकर अहंकार में उफ़ना फिरता हो।
हाय रे बेचारे ज्ञान-दग्ध, ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रंजयति।
मेरा मन दया से भर गया और मैंने उस धूप-बत्ती को बिना उठाये ही फिर से जलाने का निश्चय कर लिया। झट मैंने दियासलाई जलायी और उसे धूप-बत्ती के सिर से लगाया। दियासलाई जलकर बुझ गयी, पर धूपबत्ती न जली। मैंने दियासलाई की दूसरी सींक जलायी और उसे उसके दाहिनी ओर लगाया, पर धूप-बत्ती न जली। मैंने तीसरी दियासलाई जलायी और उसे उसके बायीं ओर लगाया, पर वह भी जलकर बुझ गयी।
धूप-बत्ती अब भी बिना जली, पहले जैसी ही सिर-जली खड़ी थी और मेरे लिए अब कोई मार्ग न था कि उसे खड़ी रहते जला दूं। मैंने उसे उसके स्थान से उखाड़ लिया और उसे झुकाकर चौथी दियासलाई जलायी। अरे साहब, वह दियासलाई से छूते ही जल उठी। दियासलाई में अब भी इतना दम था कि तैयार हों, तो वह चार-पाँच धूप-बत्तियाँ और जला दें !
जलती धूप-बत्ती ने अपनी सुगन्ध से कोठरी को भर दिया। यह काम समाप्त हुआ, तो बुद्धि ने अपनी कलाबाज़ी दिखायी : तीन दियासलाइयाँ पूरी जलकर बुझ गयीं पर धूप-बत्ती न जली और एक दियासलाई के स्पर्श मात्र से ही वह भभक उठी, यह क्या बात है?
मन ने कहा, “कोई बात तो है यह; पर प्रश्न तो यह है कि क्या बात है यह?"
अब ऊहापोह की बारी है, तर्क-वितर्क की बारी है, चिन्तन की बारी है।
जब तक तीन दियासलाइयाँ जलकर बुझीं, धूप-बत्ती खड़ी थी और जब वह चौथी को छूते ही जल उठी, तो झुकी हुई थी।
लगता है, इस अनुभव में मेरे प्रश्न का उत्तर आ गया है, पर वह इतना संकेतात्मक है कि कहँ-समा गया है। समाये को जानना आवश्यक है, तो सोच रहा हूँ कि धूप-बत्ती खड़ी हो या तिरछी, उसमें जलने की शक्ति बराबर ही है, पर खड़ी हुई धूप-बत्ती दियासलाई की ज्वाला को ग्रहण करने में असमर्थ रहती है और तिरछी धूप-बत्ती उसे सुगमता से ग्रहण कर लेती है; क्योंकि झुकी हुई धूप-बत्ती को दियासलाई अपनी लौ के पूरे घेरे में ले पाती है और सीधी खड़ी को नहीं।
बात हाथ आ गयी, पर बात अपने में अकेली-इकहरी बात ही तो नहीं है, उसमें बात-बात में बात भी तो है-'ज्यों केले के पात में पात-पात में पात।'
तो यह निकली आ रही है बात में से बात कि किसी से कुछ लेना हो तो झुकना आवश्यक है। झकना, क्या शरीर का? नहीं जी यों झुककर, दण्डवत् लेटकर ही तो फ़ौज़ के सिपाही गोलियाँ दागते हैं, तो झुकना देह का नहीं, भाव का। साफ़-साफ़ यों कि पाने के लिए नम्र होना आवश्यक है। लोकोक्ति है. बेटा बनकर सबने खाया. बाप बनकर किसी ने नहीं। यह बेटा बनना नम्रता ही तो है?
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- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
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