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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

धूप-बत्ती : बुझी, जली !


अपनी कोठरी में आते ही देखा कि कल सुबह जो धूप-बत्ती जलायी थी, वह पूरी तरह जली नहीं थी, कुछ जलकर बुझ गयी थी और अब भी ज्यों की त्यों खड़ी है। मुझे वह सिर-जली ऐसी लगी कि जैसे कोई मनुष्य हो, थोड़े-बहुत ज्ञान से जिसका बौद्धिक जागरण तो हो गया हो, पर मानसिक विकास न हुआ हो और वह उस बौद्धिक जागरण को अपना सम्पूर्ण विकास मानकर अहंकार में उफ़ना फिरता हो।

हाय रे बेचारे ज्ञान-दग्ध, ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रंजयति।

मेरा मन दया से भर गया और मैंने उस धूप-बत्ती को बिना उठाये ही फिर से जलाने का निश्चय कर लिया। झट मैंने दियासलाई जलायी और उसे धूप-बत्ती के सिर से लगाया। दियासलाई जलकर बुझ गयी, पर धूपबत्ती न जली। मैंने दियासलाई की दूसरी सींक जलायी और उसे उसके दाहिनी ओर लगाया, पर धूप-बत्ती न जली। मैंने तीसरी दियासलाई जलायी और उसे उसके बायीं ओर लगाया, पर वह भी जलकर बुझ गयी।

धूप-बत्ती अब भी बिना जली, पहले जैसी ही सिर-जली खड़ी थी और मेरे लिए अब कोई मार्ग न था कि उसे खड़ी रहते जला दूं। मैंने उसे उसके स्थान से उखाड़ लिया और उसे झुकाकर चौथी दियासलाई जलायी। अरे साहब, वह दियासलाई से छूते ही जल उठी। दियासलाई में अब भी इतना दम था कि तैयार हों, तो वह चार-पाँच धूप-बत्तियाँ और जला दें !

जलती धूप-बत्ती ने अपनी सुगन्ध से कोठरी को भर दिया। यह काम समाप्त हुआ, तो बुद्धि ने अपनी कलाबाज़ी दिखायी : तीन दियासलाइयाँ पूरी जलकर बुझ गयीं पर धूप-बत्ती न जली और एक दियासलाई के स्पर्श मात्र से ही वह भभक उठी, यह क्या बात है?

मन ने कहा, “कोई बात तो है यह; पर प्रश्न तो यह है कि क्या बात है यह?"

अब ऊहापोह की बारी है, तर्क-वितर्क की बारी है, चिन्तन की बारी है।

जब तक तीन दियासलाइयाँ जलकर बुझीं, धूप-बत्ती खड़ी थी और जब वह चौथी को छूते ही जल उठी, तो झुकी हुई थी।

लगता है, इस अनुभव में मेरे प्रश्न का उत्तर आ गया है, पर वह इतना संकेतात्मक है कि कहँ-समा गया है। समाये को जानना आवश्यक है, तो सोच रहा हूँ कि धूप-बत्ती खड़ी हो या तिरछी, उसमें जलने की शक्ति बराबर ही है, पर खड़ी हुई धूप-बत्ती दियासलाई की ज्वाला को ग्रहण करने में असमर्थ रहती है और तिरछी धूप-बत्ती उसे सुगमता से ग्रहण कर लेती है; क्योंकि झुकी हुई धूप-बत्ती को दियासलाई अपनी लौ के पूरे घेरे में ले पाती है और सीधी खड़ी को नहीं।

बात हाथ आ गयी, पर बात अपने में अकेली-इकहरी बात ही तो नहीं है, उसमें बात-बात में बात भी तो है-'ज्यों केले के पात में पात-पात में पात।'

तो यह निकली आ रही है बात में से बात कि किसी से कुछ लेना हो तो झुकना आवश्यक है। झकना, क्या शरीर का? नहीं जी यों झुककर, दण्डवत् लेटकर ही तो फ़ौज़ के सिपाही गोलियाँ दागते हैं, तो झुकना देह का नहीं, भाव का। साफ़-साफ़ यों कि पाने के लिए नम्र होना आवश्यक है। लोकोक्ति है. बेटा बनकर सबने खाया. बाप बनकर किसी ने नहीं। यह बेटा बनना नम्रता ही तो है?

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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